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गगनयान मिशन: क्रू मॉड्यूल और सर्विस मॉड्यूल संरचना के डिजाइन का कार्य पूरा, जानिए मिशन की स्थिति


गगनयान मिशन, मुख्य रूप से एक वैज्ञानिक और तकनीकी प्रयास होने के बावजूद, भारत के लिए महत्वपूर्ण सामाजिक-आर्थिक लाभ लेकर आया है। ऐसे कुछ प्रमुख क्षेत्र हैं जहाँ मिशन के सकारात्मक प्रभाव पड़ने की उम्मीद है। गगनयान कार्यक्रम की प्रगति की स्थिति इस प्रकार है:

मानव रेटेड लॉन्च वाहन:

इसका आशय अंतरिक्ष यात्रियों को सुरक्षित लेने की क्षमता वाले प्रक्षेपण वाहन से है। प्रक्षेपण वाहन की मानव रेटिंग की दिशा में ठोस, तरल और क्रायोजेनिक इंजन सहित प्रणोदन प्रणाली चरणों का ग्राउंड परीक्षण पूरा हो गया है।

क्रू मॉड्यूल एस्केप सिस्टम: 

इसका आशय आपातकालीन प्रणाली से है जिसका उद्देश्य प्रक्षेपण के दौरान किसी भी तरह की असफलता की स्थिति में अंतरिक्ष यात्रियों को प्रक्षेपण वाहन से सुरक्षित दूरी पर ले जाना होता है। पांच प्रकार के क्रू एस्केप सिस्टम सॉलिड मोटर्स का डिजाइन और कार्यान्वयन पूरा हो गया है। सभी पांच प्रकार के सॉलिड मोटर्स का स्टेटिक परीक्षण पूरा हो गया है। क्रू एस्केप सिस्टम (सीईएस) के प्रदर्शन सत्यापन के लिए पहला टेस्ट व्हीकल मिशन (टीवी-डी 1) सफलतापूर्वक पूरा हो गया है।

ऑर्बिटल मॉड्यूल सिस्टम: 

क्रू मॉड्यूल और सर्विस मॉड्यूल संरचना का डिजाइन पूरा हो गया है। एकीकृत मुख्य पैराशूट एयर ड्रॉप टेस्ट और रेल ट्रैक रॉकेट स्लेज टेस्ट के माध्यम से विभिन्न पैराशूट सिस्टम का परीक्षण किया गया है

गगनयात्री प्रशिक्षण:

 प्रशिक्षण कार्यक्रम के तीन में से दो सत्र पूरे हो चुके हैं। स्वतंत्र प्रशिक्षण सिम्युलेटर और स्टेटिक मॉकअप सिम्युलेटर का निर्माण किया गया है।

मुख्य आधारभूत ढांचा: 

ऑर्बिटल मॉड्यूल तैयारी सुविधा (ओएमपीएफ), अंतरिक्ष यात्री प्रशिक्षण सुविधा (एटीएफ) और ऑक्सीजन परीक्षण सुविधा जैसी महत्वपूर्ण सुविधाएं चालू हो चुकी हैं। मिशन कंट्रोल सेंटर (एमसीसी) सुविधाओं का निर्माण और ग्राउंड स्टेशन नेटवर्क की स्थापना का काम पूरा होने वाला है।

गगनयान का पहला मानवरहित मिशन: 

मानव-रेटेड लॉन्च वाहन के ठोस और तरल प्रणोदन चरण उड़ान एकीकरण के लिए तैयार हैं। C32 क्रायोजेनिक चरण उड़ान एकीकरण के लिए तैयार किया जा रहा है। क्रू मॉड्यूल और सर्विस मॉड्यूल संरचना का निर्माण पूरा हो चुका है। उड़ान एकीकरण गतिविधियाँ प्रगति पर हैं।

तकनीकी उन्नति और स्पिन-ऑफ:

नई तकनीकें: क्रायोजेनिक इंजन, हल्के पदार्थ, जीवन रक्षक प्रणाली और रोबोटिक्स जैसी उन्नत तकनीकों के विकास का एयरोस्पेस, ऑटोमोटिव, स्वास्थ्य सेवा और ऊर्जा सहित विभिन्न उद्योगों में अनुप्रयोग होगा।

रोजगार सृजन: इस मिशन से एयरोस्पेस उद्योग, शोध संस्थानों और संबंधित क्षेत्रों में कई अनेक रोजगारों के अनेक अवसर सृजन की उम्मीद है।

आर्थिक विकास: स्वदेशी अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी का विकास निवेश को आकर्षित करेगा, घरेलू विनिर्माण को बढ़ावा देगा और आर्थिक विकास में योगदान देगा।

भविष्य की पीढ़ियों को प्रेरित करना:

एसटीईएम शिक्षा: यह मिशन युवा प्रतिभाओं को विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग और गणित (एसटीईएम) में करियर बनाने के लिए प्रेरित करेगा।

राष्ट्रीय गौरव: एक सफल मानव अंतरिक्ष उड़ान कार्यक्रम राष्ट्रीय गौरव को बढ़ाएगा और भारतीय आबादी में विशिष्ट उपलब्धि की भावना को प्रेरित करेगा।

अंतर्राष्ट्रीय सहयोग और कूटनीति:

वैश्विक भागीदारी: यह मिशन अंतरिक्ष यात्रा करने वाले अन्य देशों के साथ अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा देगा, जिससे ज्ञान साझाकरण और संयुक्त उपक्रमों को बढ़ावा मिलेगा।

राजनयिक प्रभाव: भारत का सफल अंतरिक्ष कार्यक्रम इसकी वैश्विक स्थिति और कूटनीतिक प्रभाव को बढ़ाएगा।

वैज्ञानिक शोध और नवाचार:

सूक्ष्मगुरुत्व प्रयोग: सूक्ष्मगुरुत्व में प्रयोग करने से पदार्थ विज्ञान, जैव प्रौद्योगिकी और चिकित्सा सहित विभिन्न क्षेत्रों में सफलता मिल सकती है।

रिमोट सेंसिंग और पृथ्वी अवलोकन: यह मिशन बेहतर मौसम पूर्वानुमान, आपदा प्रबंधन और संसाधन प्रबंधन में योगदान दे सकता है।

सरकार ने भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रमों में हरियाणा राज्य सहित पूरे भारत में भारतीय उद्योगों और स्टार्ट-अप की भागीदारी को बढ़ावा देने के लिए कई पहल की हैं।(Source PIB)

नैफिथ्रोमाइसिन: जानें भारत की पहली स्वदेश मे निर्मित एंटीबायोटिक के बारे में

Nafithromycin Indias First Antibiotics Facts in Brief

एंटीमाइक्रोबियल प्रतिरोध लंबे समय से एक बढ़ती वैश्विक चिंता का विषय रहा है, दवा कंपनियां दुनिया भर में इससे निपटने के लिए नई दवाएं विकसित करने का प्रयास कर रही हैं। वर्षों की चुनौतियों और अथक प्रयासों के बाद अंततः एक सफलता मिली है। तीन दशकों के शोध और कड़ी मेहनत के बाद भारत ने पहली स्वदेशी मैक्रोलाइड एंटीबायोटिक नैफिथ्रोमाइसिन का  निर्माण किया है। यह उल्लेखनीय उपलब्धि एंटीमाइक्रोबियल प्रतिरोध के खिलाफ लड़ाई में  फार्मास्युटिकल नवाचार में भारत की बढ़ती क्षमताओं को दर्शाता है।

केंद्रीय मंत्री डॉ. जितेंद्र सिंह ने कहा है कि नैफिथ्रोमाइसिन की सफलता इस बात का प्रमाण है कि भारत की स्वास्थ्य सेवा संबंधी चुनौतियों के लिए स्वदेशी समाधान विकसित करने की क्षमता बढ़ा रही है।

एंटीमाइक्रोबियल प्रतिरोध के खिलाफ भारत की लड़ाई

रोगाणुरोधी प्रतिरोध (एएमआर) तब होता है जब बैक्टीरिया, वायरस, कवक और परजीवी रोगाणुरोधी दवाओं पर प्रतिक्रिया नहीं करते हैं। दवा प्रतिरोध के परिणामस्वरूप एंटीबायोटिक्स और अन्य रोगाणुरोधी दवाएं अप्रभावी हो जाती हैं और संक्रमण का इलाज करना मुश्किल या असंभव हो जाता है। इससे बीमारी फैलने, गंभीर बीमारी, विकलांगता और मृत्यु का खतरा बढ़ जाता है। जबकि एएमआर समय के साथ रोगाणु में आनुवंशिक परिवर्तनों द्वारा संचालित एक प्राकृतिक प्रक्रिया है, इसका प्रसार मानवीय गतिविधियों, विशेष रूप से मनुष्यों, जानवरों और पौधों में रोगाणुरोधी दवाओं के अति प्रयोग और दुरुपयोग से काफी तेज हो जाता है। रोगाणुरोधी प्रतिरोध (एएमआर) एक प्रमुख वैश्विक स्वास्थ्य मुद्दा बन गया है, भारत में हर साल लगभग 6 लाख लोगों की जान प्रतिरोधी संक्रमणों के कारण जाती है। हालांकि भारत एएमआर को संबोधित करने में महत्वपूर्ण प्रगति कर रहा है, विशेष रूप से नई दवाओं के विकास के माध्यम से। चरण 3 नैदानिक ​​परीक्षणों के लिए जैव प्रौद्योगिकी उद्योग अनुसंधान सहायता परिषद (बीआईआरएसी) बायोटेक उद्योग कार्यक्रम के अंतर्गत  8 करोड़ रुपये के वित्त पोषण के साथ विकसित नेफिथ्रोमाइसिन के एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है। नैफिथ्रोमाइसिन बेहतर रोगी अनुपालन प्रदान करता है और एएमआर से निपटने में एक महत्वपूर्ण कदम है।

नैफिथ्रोमाइसिन: सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए मील का पत्थर

नैफिथ्रोमाइसिन को आधिकारिक तौर पर 20 नवंबर 2024 को केंद्रीय मंत्री डॉ. जितेंद्र सिंह द्वारा शुरू किया गया था। बायोटेक्नोलॉजी इंडस्ट्री रिसर्च असिस्टेंस काउंसिल (बीआईआरएसी) के समर्थन से वॉकहार्ट द्वारा विकसित नैफिथ्रोमाइसिन को "मिक्नाफ" के रूप में विपणन किया जाता है।  दवा-प्रतिरोधी बैक्टीरिया के कारण होने वाले सामुदायिक-अधिग्रहित जीवाणु निमोनिया (सीएबीपी) को लक्षित करता है। यह बच्चों, बुजुर्गों और कमजोर प्रतिरक्षा प्रणाली वाले लोगों को प्रभावित करता है।

यह अभूतपूर्व एंटीबायोटिक एज़िथ्रोमाइसिन जैसे वर्त्तमान उपचारों की तुलना में दस गुना अधिक प्रभावी है और तीन-दिन के उपचार से रोगी में सुधार होने के साथ-साथ ठीक होने का समय भी काफी कम हो जाता है। नेफिथ्रोमाइसिन को विशिष्ट और असामान्य दोनों प्रकार के दवा प्रतिरोधी बैक्टीरिया के इलाज के लिए डिज़ाइन किया गया है। यह इसे एएमआर (एंटी-माइक्रोबियल रेजिस्टेंस) के वैश्विक स्वास्थ्य संकट के समाधान में एक महत्वपूर्ण बनाता है। इसमें बेहतर सुरक्षा, न्यूनतम दुष्प्रभाव और कोई दवा पारस्परिक प्रभाव नहीं होता है।

नेफिथ्रोमाइसिन का विकास एक ऐतिहासिक मील का पत्थर है, क्योंकि यह 30 से अधिक वर्षों में वैश्विक स्तर पर पेश किया गया, अपनी श्रेणी का पहला नया एंटीबायोटिक है। अमेरिका, यूरोप और भारत में व्यापक नैदानिक ​​परीक्षणों से गुजरने वाली इस दवा को 500 करोड़ रुपये के निवेश से विकसित किया गया है। अब केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन (सीडीएससीओ) से अंतिम मंजूरी का इंतजार है।

यह नवाचार सार्वजनिक-निजी सहयोग की शक्ति का उदाहरण है और जैव प्रौद्योगिकी में भारत की बढ़ती क्षमताओं को दिखता है। नैफिथ्रोमाइसिन का सफल आगमन एएमआर के खिलाफ लड़ाई में एक बड़ी उपलब्धि है। यह बहु-दवा प्रतिरोधी संक्रमणों के इलाज और दुनिया भर में जीवन बचाने की उम्मीद प्रदान करता है।

भारत सरकार ने नैफिथ्रोमाइसिन को विकसित करने के अलावा निगरानी, ​​जागरूकता और सहयोग के उद्देश्य से रणनीतिक पहलों की एक श्रृंखला के माध्यम से रोगाणुरोधी प्रतिरोध (एएमआर) का मुकाबला करने के लिए कई महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं। ये प्रयास एएमआर नियंत्रण को बढ़ाने, संक्रमण नियंत्रण में सुधार करने और राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय भागीदारी को बढ़ावा देने पर केंद्रित हैं। (Source PIB)

Discovery: पूर्वी और पश्चिमी घाट के इलाकों में मीठे पानी में डायटम की एक नई प्रजाति की खोज

Gomphonemoid: A new freshwater diatom genus discovered from the Eastern and Western Ghats

विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग का पुणे में स्थित स्वायत्त संस्थान अघारकर अनुसंधान संस्थान (एआरआई) के वैज्ञानिकों ने इंडिकोनेमा की खोज की। इस इंडिकोनेमा में केवल पैर के ध्रुव पर छिद्र क्षेत्र होने के बजाय सिर और पैर के दोनों ध्रुव पर एक छिद्र क्षेत्र है। डिकोनेमा की एक प्रजाति पूर्वी घाट से और दूसरी पश्चिमी घाट से पाई गई है। दो पर्वत प्रणालियों के बीच स्थानिक तत्वों को साझा करने का एक समान पैटर्न अन्य स्थानिक-समृद्ध समूहों, जैसे सरीसृपों के लिए देखा गया है।

शोधकर्ताओं ने पूर्वी घाट की स्वच्छ जल नदी में पाए जाने वाले गोम्फोनमॉइड डायटम की एक नई प्रजाति की खोज की है। इस प्रजाति में कई दिलचस्प विशेषताएं हैं, जो इसे वाल्व समरूपता और अन्य कुछ वाल्व विशेषताओं के मामले में गोम्फोनमॉइड समूह के अन्य सदस्यों से अलग करती हैं। देश में इसके सीमित वितरण को अहमियत देने के लिए इसे इंडिकोनेमा नाम दिया गया है। यह शोध भारत के विविध परिदृश्यों की जैव विविधता को आकार देने में डायटम के महत्व को रेखांकित करता है।

डायटम सूक्ष्म शैवाल हैं जो वैश्विक ऑक्सीजन का 25 प्रतिशत, यानी हमारे द्वारा ली जाने वाली ऑक्सीजन की लगभग हर चौथी सांस का उत्पादन करके हमारे दैनिक जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वे जलीय खाद्य श्रृंखला के आधार के रूप में कार्य करते हैं। किसी भी जल रसायन परिवर्तन के प्रति उनकी संवेदनशीलता के कारण, वे जलीय स्वास्थ्य के उत्कृष्ट संकेतक हैं।

डायटम भारत में सबसे पहले दर्ज किए गए सूक्ष्मजीव हैं। इस बारे में एहरनबर्ग की पहली रिपोर्ट 1845 में उनके बड़े प्रकाशन माइक्रोजियोलॉजी में छपी थी। तब से, भारत में कई अध्ययनों में मीठे पानी और समुद्री वातावरण से डायटम दर्ज किए गए हैं। एक मोटे अनुमान के अनुसार लगभग 6,500 डायटम टैक्सा हैं, जिनमें से 30 प्रतिशत भारत के लिए स्थानिक (एक विशेष क्षेत्र तक सीमित) हैं, जो भारत की अनूठी जैव विविधता का प्रमाण हैं। इसके अलावा, विविध जैवभौगोलिक क्षेत्र मीठे पानी से लेकर समुद्री, समुद्र तल से लेकर ऊंचे पहाड़ों और क्षारीय झीलों से लेकर अम्लीय दलदलों तक के आवास विविधता के साथ विभिन्न प्रजातियों के अनुकूल हैं। प्रायद्वीपीय भारत में पूर्वी और पश्चिमी घाट शामिल हैं। इनमें विशिष्ट भौतिक, मृदा और जलवायु प्रवणता हैं जो अद्वितीय भौगोलिक स्थितियों के साथ आवासों की एक विस्तृत श्रृंखला प्रदान करते हैं और डायटम के अनोखे सेट के अनुकूल भी हैं।

विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग का पुणे में स्थित स्वायत्त संस्थान अघारकर अनुसंधान संस्थान (एआरआई) के वैज्ञानिकों ने इंडिकोनेमा की खोज की। इस इंडिकोनेमा में केवल पैर के ध्रुव पर छिद्र क्षेत्र होने के बजाय सिर और पैर के दोनों ध्रुव पर एक छिद्र क्षेत्र है।

बढ़ते मानसून ने भारतीय प्रायद्वीप में वर्षा वन बायोम को संरचित किया है और संबंधित अलग-अलग नमी स्तर बनाया है, जिसकी डायटम वनस्पतियों को आकार देने में प्रत्यक्ष भूमिका है।

फाइकोलोजिया पत्रिका में प्रकाशित शोध में बताया गया है कि इंडिकोनेमा की एक प्रजाति पूर्वी घाट से और दूसरी पश्चिमी घाट से पाई गई है। दो पर्वत प्रणालियों के बीच स्थानिक तत्वों को साझा करने का एक समान पैटर्न अन्य स्थानिक-समृद्ध समूहों, जैसे सरीसृपों के लिए देखा गया है।

इसके अलावा, इस समूह की रूपात्मक विशेषताओं के आधार पर, शोधकर्ताओं ने सुझाव दिया है कि इंडिकोनेमा पूर्वी अफ्रीका में स्थानिक प्रजाति एफ्रोसिमबेला की सहोदर है। शुरुआती अध्ययनों में पाया गया कि भारत और पूर्वी अफ्रीका तथा मेडागास्कर की गोम्फोनेमा प्रजातियों के बीच समानताओं को वर्तमान अध्ययन समूह भी मानता है। पूर्ववर्ती एसईआरबी, जो अब एएनआरएफ बन गया है, ने कहा है कि यह खोज डायटम जैवभौगोलिकी के रहस्यों को उजागर करने और भारत के विविध परिदृश्यों की जैव विविधता को आकार देने में उनकी भूमिका के लिए चल रहे शोध काफी महत्वपूर्ण हैं। (Source PIB)

एस्ट्रोसैट द्वारा नए उच्च चुंबकीय क्षेत्र वाले न्यूट्रॉन तारे में पाए गए मिली-सेकंड विस्फोट का पता लगाया

AstroSat India first multi-wavelength space-based observatory detected bright sub-second X ray bursts

एक व्यापक उपलब्धि हासिल करते हुए एस्ट्रोसैट, जो भारत की पहली मल्टी-वेवलेंथ अंतरिक्ष-आधारित वेधशाला है, ने अल्ट्राहाई चुंबकीय क्षेत्र (मैग्नेटर) के साथ एक नए और विशिष्‍ट न्यूट्रॉन तारे से चमकीले सब-सेकेंड एक्स-रे विस्फोट का पता लगाया है। इससे मैग्नेटर्स की दिलचस्प चरम खगोल भौतिकी स्थितियों को समझने में सहायता मिल सकती है।

मैग्नेटार के बारे में 

मैग्नेटार ऐसे न्यूट्रॉन तारे हैं जिनमें अल्‍ट्राहाई चुंबकीय क्षेत्र होता है जो स्थलीय चुंबकीय क्षेत्र की तुलना में बहुत अधिक मजबूत होता है। सामान्‍य रूप से कहें तो मैग्नेटर का चुंबकीय क्षेत्र पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र से एक क्वाड्रिलियन (एक करोड़ शंख) गुना अधिक मजबूत होता है। उनमें उच्च-ऊर्जा विद्युत चुम्बकीय विकिरण के उत्सर्जन की शक्ति इन वस्तुओं में चुंबकीय क्षेत्र का क्षरण है। इसके अलावा, मैग्नेटर्स मजबूत अस्थायी परिवर्तनशीलता को प्रदर्शित करते हैं, जिसमें सामान्‍य रूप से धीमी गति से घूमना, तेजी से घूमना, चमकीले लेकिन छोटे विस्फोट शामिल होते हैं जो महीनों तक चलते रहते हैं।

ऐसे एक मैग्नेटर को एसजीआर  जे1830-0645 कहा जाता था, जिसकी अक्टूबर 2020 में नासा के स्विफ्ट अंतरिक्ष यान ने खोज की थी। यह अपेक्षाकृत युवा (लगभग 24,000 वर्ष) और पृथक न्यूट्रॉन तारा है।

एस्ट्रोसैट के साथ ब्रॉड-बैंड एक्स-रे ऊर्जा में मैग्नेटर का अध्ययन करने और इसकी विशेषताओं का पता लगाने के उद्देश्‍य के लिए प्रेरित होकर, रमन रिसर्च इंस्टीट्यूट (आरआरआई) और दिल्ली विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने एस्ट्रोसैट पर दो उपकरणों- बड़े क्षेत्र वाले एक्स-रे आनुपातिक काउंटर (एलएएक्सपीसी) और सॉफ्ट एक्स-रे टेलीस्कोप (एसएक्सटी) का उपयोग करके इस मैग्नेटर का समय और स्‍पेक्‍ट्रल का विश्लेषण किया है। 

“एक मुख्य निष्कर्ष 33 मिलिसेकंड की औसत अवधि के साथ 67 छोटे सब-सेकंड एक्स-रे विस्फोटों का पता लगाना था। इन विस्फोटों में से एक सबसे चमकीला विस्‍फोट लगभग 90 मिलीसेकंड का रहा।” यह जानकारी विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा वित्त पोषित एक स्वायत्त संस्थान आरआरआई में पोस्ट-डॉक्टरल फेलो और अनुसंधान-पत्र के लेखक डॉ. राहुल शर्मा ने दी।

यह अध्‍ययन रॉयल एस्ट्रोनॉमिकल सोसाइटी के मासिक सूचना में प्रकाशित हुआ। जिसमें यह निष्कर्ष निकाला गया है कि एसजीआर जे1830-0645 एक विशिष्‍ट मेगनेटर है जो अपने स्पेक्ट्रा में उत्सर्जन लाइन को प्रदर्शित करता है।

इस अध्ययन में कहा गया है कि उत्सर्जन लाइनों की उपस्थिति और इसकी संभावित उत्पत्ति या तो आयरन की प्रतिदीप्ति, प्रोटॉन साइक्लोट्रॉन लाइन या एक उपकरणीय प्रभाव के कारण हुई जो चर्चा का कारण बनी हुई है।

डॉ. शर्मा ने कहा कि एसजीआर जे1830-0645 में ऊर्जा-निर्भरता कई अन्य मगनेटरों में पाई गई ऊर्जा से भिन्न थी। यहां, न्यूट्रॉन तारे की सतह (0.65 और 2.45 किमी की रेडियस) से उत्पन्न होने वाले दो थर्मल ब्लैकबॉडी उत्सर्जन घटक थे। इस प्रकार, यह शोध मैग्नेटर्स और उनकी चरम खगोलीय स्थितियों के बारे में हमारी समझ को आगे बढ़ाने में योगदान देता है।

हंसराज कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय की सह-लेखिका प्रोफेसर चेतना जैन ने कहा कि हमने यह देखा है कि समग्र एक्स-रे उत्सर्जन के स्पंदित घटक ने ऊर्जा के साथ महत्वपूर्ण भिन्नता दर्शायी है। यह ऊर्जा के लिए लगभग 5 किलोइलेक्ट्रॉन वोल्ट (केवी) तक बढ़ गया और उसके बाद इसमें भारी गिरावट देखी गई। यह प्रवृत्ति कई अन्य मैग्‍नेटरों में पाई गई प्रवृत्ति से अलग है।

शोध दल अब इन अत्यधिक ऊर्जावान उत्सर्जनों की उत्पत्ति को समझने और यह पता लगाने के लिए अपने आगे के अध्ययन का विस्तार करने की योजना बना रहा है कि क्या ये उत्‍सर्जन खगोलीय है या यांत्रिक‍ प्रकृति के हैं। (स्रोत-PIB)

नागपुर में विश्व रिकॉर्ड: सिंगल कॉलम पियर्स पर समर्थित मेट्रो रेल और फ्लाईओवर Facts in Brief

सिंगल कॉलम पियर्स पर समर्थित मेट्रो रेल और फ्लाईओवर हाईवे के साथ सबसे लंबे डबल डेकर मार्ग सेतु (3.14 किमी) के निर्माण के साथ ही आज नागपुर का नाम एक विश्व रिकॉर्ड जुड़ गया है। महाराष्ट्र मेट्रो टीम और एनएचएआई टीम ने इस इस विश्व रिकॉर्ड को प्राप्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाया हैं

सिंगल कॉलम पियर्स पर समर्थित मेट्रो रेल और फ्लाईओवर हाईवे के साथ सबसे लंबे डबल डेकर मार्ग सेतु (3.14 किमी) के निर्माण के लिए नागपुर में विश्व रिकॉर्ड हासिल करने के लिए महाराष्ट्र मेट्रो टीम और एनएचएआई टीम को श्रेय जाता है।

 केंद्रीय सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्री श्री नितिन गडकरी ने ट्वीट्स की एक श्रृंखला में जानकारी देते हुए कहा कि विश्व रिकॉर्ड की संख्या में एक और नामांकन जुड़ गया है! 
नागपुर में डबल डेकर मार्ग सेतु पर अधिकतम मेट्रो स्टेशनों (3 मेट्रो स्टेशनों) के निर्माण को एशिया बुक ऑफ रिकॉर्ड्स और इंडिया बुक ऑफ रिकॉर्ड्स द्वारा मान्यता दी गई है, यह वास्तव में संपूर्ण देश के लिए गर्व का क्षण है।

गडकरी ने दिन-रात अथक परिश्रम करके इस कल्पना को साकार रूप देने वाले असाधारण अभियंताओं, अधिकारियों और श्रमिकों को धन्यवाद दिया। उन्होंने कहा कि इस तरह का विकास प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी सरकार द्वारा नये भारत में विश्व स्तरीय बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए किए गए वायदे की पूरा करना है।

 

ना-आयन बैटरी और सुपरकैपेसिटर से तेजी से चार्ज होने वाली ई-साइकिल विकसित:Facts in Brief


वैज्ञानिकों ने नैनो-सामग्री का उपयोग ना-आयन-आधारित बैटरियों और सुपरकैपेसिटरों को विकसित करने के लिए किया है, जिन्हें तेजी से चार्ज किया जा सकता है और उन्हें ई-साइकिल में लगाया जा सकता है। कम लागत वाली ना-आयन आधारित प्रौद्योगिकियां सस्ती होंगी और इससे ई-साइकिल की लागत में काफी कमी आने की उम्मीद है।

सोडियम-आयन (ना-आयन) बैटरियों ने सोडियम की उच्च प्राकृतिक प्रचुरता और परिणामस्वरूप ना-आयन बैटरी की कम लागत के कारण लिथियम-आयन बैटरी के लिए एक संभावित पूरक तकनीक के रूप में अकादमिक और व्यावसायिक रुचि को बढ़ाया है

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान खड़गपुर में भौतिकी विभाग में प्रोफेसर, डॉ. अमरीश चंद्र, ऊर्जा भंडारण प्रौद्योगिकियों को विकसित करने के लिए शोध कर रहे हैं, जो ना-आयन पर आधारित हैं, और उनकी टीम ने बड़ी संख्या में नैनो सामग्री विकसित की है। टीम ने सोडियम आयरन फॉस्फेट और सोडियम मैंगनीज फॉस्फेट का उपयोग किया है जिसे उन्होंने भारत सरकार के विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग (डीएसटी) के प्रौद्योगिकी मिशन डिवीजन (टीएमडी) के समर्थन से ना-आयन-आधारित बैटरी और सुपरकैपेसिटर प्राप्त करने के लिए संश्लेषित किया है। इन सोडियम सामग्रियों को बैटरी विकसित करने के लिए कार्बन के विभिन्न नई संरचनाओं के साथ जोड़ा गया था।

ये सोडियम सामग्री ली-आधारित सामग्री से सस्ती, उच्च प्रदर्शन करने वाली है, और इसे औद्योगिक स्तर के उत्पादन तक बढ़ाया जा सकता है। ना-आयन सेल को भी अनेक अन्य भंडारण तकनीकों की तुलना में सुरक्षित विकल्प बनाने के लिए कैपेसिटर के समान शून्य वोल्ट में पूरी तरह से डिस्चार्ज किया जा सकता है। इस तथ्य का लाभ उठाते हुए कि ना-आयन बैटरी को तेजी से चार्ज किया जा सकता है, डॉ. अमरीश ने इसे ई-साइकिल में जोड़ा है जो आम जनता के लिए एक आसान, किफायती विकल्प है।

आगे विकसित करने के साथ, इन वाहनों की कीमत 10-15 हजार रुपये की सीमा तक लाई जा सकती है, जिससे यह ली-आयन भंडारण प्रौद्योगिकी-आधारित ई-साइकिलों की तुलना में लगभग 25 प्रतिशत सस्ती है। चूंकि ना-आयन-आधारित बैटरियों के निपटान की रणनीति सरल होगी, यह जलवायु को होने वाले नुकसान को कम करने में भी मदद कर सकती है। सुपरकैपसिटर पर शोध जर्नल ऑफ पावर सोर्सेज में प्रकाशित हुआ था, और ई-साइकिल में इन ना-आयन-आधारित बैटरी के उपयोग पर कुछ पेटेंट पाइपलाइन में हैं।

ज़ोरावर: भारतीय लाइट टैंक-Facts in Brief

डेयरी क्षेत्र में ‘आत्मनिर्भर भारत’ Facts in Brief

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जानें क्या होता है साइक्लोन Facts in Brief



अभ्यास: हाई स्पीड एक्सपैंडेबल एरियल टार्गेट का सफलतापूर्वक परीक्षण- Facts in Brief

ABHYAS High speed Expendable Aerial Target Facts in Brief

अभ्यास - हाई स्पीड एक्सपैंडेबल एरियल टार्गेट (एचईएटी) का ओडिशा के तट पर स्थित चांदीपुर के इंटीग्रेटेड टेस्ट रेंज (आईटीआर) से सफलतापूर्वक उड़ान परीक्षण किया गया। अभ्यास की डिजाइन एवं उसका विकास रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (डीआरडीओ) के वैमानिकी विकास प्रतिष्ठान द्वारा किया गया है।  

उड़ान परीक्षण के दौरान निरंतर स्तर तथा उच्च गतिशीलता सहित कम ऊंचाई पर विमान का निष्पादन प्रदर्शित किया गया। टार्गेट विमान को एक पूर्व-निर्धारित निम्न ऊंचाई वाले उड़ान पथ में एक ग्राउंड आधारित कंट्रोलर से उड़ाया गया जिसकी निगरानी राडार तथा इलेक्ट्रो-ऑप्टिकल टारगेटिंग सिस्टम सहित आईटीआर द्वारा तैनात विभिन्न ट्रैकिंग सेंसरों द्वारा की गई। 

अभ्यास की डिजाइन एवं उसका विकास रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (डीआरडीओ) के वैमानिकी विकास प्रतिष्ठान द्वारा किया गया है। इस हवाई वाहन को ट्विन अंडर-स्लग बूस्टर का उपयोग करने के जरिये लॉन्‍च किया गया जो व्‍हीकल को आरंभिक गति प्रदान करते हैं। यह हाई सबसोनिक स्पीड पर एक लंबी इंड्यूरेंस फ्लाइट को बनाये रखने के लिए एक छोटे से गैस टरबाइन द्वारा संचालित है। 

टारगेट विमान बहुत ऊंची उड़ान के लिए स्वदेशी रेडियो अल्टीमीटर तथा ग्राउंड कंट्रोल स्टेशन तथा टारगेट विमान के बीच इनक्रिप्टेड कम्युनिकेशन के लिए डाटा लिंक के साथ-साथ गाइडेंस और कंट्रोल के लिए फ्लाइट कंट्रोल कंप्यूटर के साथ नैविगेशन के लिए माइक्रो-इलेक्ट्रोमैकेनिकल सिस्टम आधारित इनर्शियल नैविगेशन स्स्टिम के साथ सुसज्जित है। इस व्‍हीकल को पूरी तरह स्वचालित उड़ान के लिए प्रोग्राम किया गया है।

रक्षा मंत्री श्री राजनाथ सिंह ने अभ्यास के सफल उड़ान परीक्षण के लिए डीआरडीओ, सशस्त्र बलों तथा उद्योग को बधाई दी है और कहा कि इस सिस्टम का विकास सशस्त्र बलों के लिए एरियल टार्गेट की आवश्यकता को पूरा करेगा।

रक्षा अनुसंधान एवं विकास विभाग के सचिव तथा डीआरडीओ के अध्यक्ष डॉ. जी सतीश रेड्डी ने सिस्टम के डिजाइन, विकास और परीक्षण से जुड़ी टीमों के प्रयासों की सराहना की। 

एंटी-शिप मिसाइल का सफलतापूर्वक पहला उड़ान परीक्षण: Facts in Brief


रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (डीआरडीओ) और भारतीय नौसेना ने ओडिशा के समुद्र तट पर एकीकृत परीक्षण रेंज (आईटीआर), चांदीपुर से नौसेना हेलीकॉप्टर के जरिए स्वदेशी रूप से विकसित नौसैनिक एंटी-शिप मिसाइल का सफलतापूर्वक पहला उड़ान परीक्षण किया। रक्षा मंत्री श्री राजनाथ सिंह ने पहले विकासात्मक उड़ान परीक्षण के लिए डीआरडीओ, भारतीय नौसेना और परीक्षण से संबंधित टीमों को बधाई दी। उन्होंने कहा कि भारत ने मिसाइल प्रणालियों के स्वदेशी डिजाइन और विकास में उच्च स्तर की क्षमता हासिल कर ली है।

मिशन ने अपने सभी उद्देश्यों को पूरा किया। यह भारतीय नौसेना के लिए पहली स्वदेशी रूप से विकसित हवा से लॉन्च की जाने वाली एंटी-शिप मिसाइल प्रणाली है।

इस एंटी-शिप मिसाइल ने वांछित समुद्री स्किमिंग प्रक्षेपवक्र का अनुसरण किया और नियंत्रण, मार्गदर्शन और मिशन एल्गोरिदम को मान्य करते हुए उच्च सटीकता के साथ निर्दिष्ट लक्ष्य तक पहुंच गया। सभी उप-प्रणालियों ने संतोषजनक प्रदर्शन किया। परीक्षण रेंज और निकट प्रभाव बिंदु पर तैनात सेंसर ने मिसाइल प्रक्षेपवक्र को ट्रैक किया और सभी घटनाओं को कैद किया।

इस मिसाइल में कई नई तकनीकों को शामिल किया गया है जिसमें हेलीकॉप्टर के लिए स्वदेशी रूप से विकसित लांचर भी शामिल है। मिसाइल मार्गदर्शन प्रणाली में अत्याधुनिक नौसंचालन प्रणाली और एकीकृत वैमानिकी शामिल हैं। उड़ान परीक्षण को डीआरडीओ और भारतीय नौसेना के वरिष्ठ अधिकारियों ने गौर से देखा।

DIPCOVAN: डीआरडीओ ने कोविड-19 एंटीबॉडी पहचान किट विकसित की

DRDO develops COVID-19 Antibody Detection Kitरक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) की प्रयोगशाला डिफेंस इंस्टीट्यूट ऑफ फिजियोलॉजी एण्ड एलायड सांसेज (डीआईपीएएस) ने सीरो-निगरानी के लिए एंटीबॉडी पहचान आधारित किट ‘डिपकोवैन‘, डीपास-वीडीएक्स कोविड-19 IgG एंटीबॉडी माइक्रोवेल एलिसा विकसित की है। डिपकोवैन किट 97 प्रतिशत उच्च संवेदनशीलता और 99 प्रतिशत विशिष्टता के साथ सार्स सीओवी-2 वायरस के स्पाइक के साथ-साथ न्यूक्लियोकैप्सिड (एस एंड एन) प्रोटीन दोनों का पता लगा सकती है। किट नई दिल्ली की कंपनी वैनगार्ड डायग्नोस्टिक्स प्राइवेट लिमिटेड के सहयोग से विकसित की गई है।

डिपकोवैन किट स्वदेश में वैज्ञानिकों द्वारा विकसित की गई है और बाद में दिल्ली में निर्दिष्ट अस्पतालों में 1,000 से अधिक मरीज नमूनों पर इसका व्यापक सत्यापन किया गया है। उत्पाद के तीन बैचों पर सत्यापन का काम पिछले एक वर्ष के दौरान किया गया। इस किट को अप्रैल, 2021 में भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) द्वारा मंजूरी दी गई।

इस उत्पाद को बिक्री और वितरण के लिए बनाने की नियामक मंजूरी मई 2021 में भारत के औषधि महानियंत्रक (डीसीजीआई), केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन (सीडीएससीओ), स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा दी गई।

डिपकोवैन का उद्देश्य मानव सीरम या प्लाज्मा में गुणात्मक दृष्टि से IgG एंटीबॉडी का पता लगाना है जो सार्स सीओवी-2 से संबंधित एंटीजेन लक्षित करता है। यह काफी तेज़ टर्न-अराउंड-टाइम प्रदान करता है क्योंकि अन्य बीमारियों के साथ किसी भी क्रॉस रिएक्टिविटी के बिना परीक्षण करने के लिए इसे केवल 75 मिनट की आवश्यकता होती है। किट की शेल्फ लाइफ 18 महीने की है।

उद्योग साझेदार कंपनी वैनगार्ड डायग्नोस्टिक्स प्राइवेट लिमिटेड जून 2021 के पहले सप्ताह में किट को वाणिज्यिक रूप से लांच करेगी। लांच किए जाने के समय आसानी से उपलब्ध स्टॉक 100 किट (लगभग 10,000 जांच) का होगा और लांच के बाद इसकी उत्पादन क्षमता 500 किट/ प्रति माह होगी। आशा है यह 75 रुपए प्रति जांच पर उपलब्ध होगी। यह किट कोविड-19 महामारी विज्ञान को समझने तथा व्यक्ति में पहले सार्स सीओवी-2 के एक्सपोजर के मूल्यांकन काफी उपयोगी होगी ।

रक्षा मंत्री श्री राजनाथ सिंह ने जरूरत के समय किट विकसित करने में डीआरडीओ तथा उद्योग के प्रयासों की सराहना की है ।

रक्षा अनुसंधान और विकास विभाग के सचिव तथा डीआरडीओ के अध्यक्ष डॉ. जी सतीश रेड्डी ने किट विकसित करने में शामिल टीम की प्रशंसा की और कहा कि इस कदम से महामारी के दौरान लोगों को मदद मिलेगी। (Source PIB)

जानें क्या है टच-लेस टच स्क्रीन प्रौद्योगिकी जो लगा सकती है संपर्क से फैलने वाले वायरस पर लगाम

Touch-Less Touch Screen Technology To Avoid Viruses Spreading

 कोरोनावायरस महामारी ने हमारी जीवन शैली को महामारी परिदृश्यों के अनुकूल बनाने के प्रयासों को तेज कर दिया है साथ ही कामकाज स्वाभाविक रूप से वायरस फैलने के जोखिम को कम करने के लिए रणनीतियों से प्रेरित हो गया हैं. खासतौर से सार्वजनिक स्थलों पर जहां सेल्फ-सर्विस कियोस्क, एटीएम और वेंडिंग मशीनों पर टचस्क्रीन लगभग अपरिहार्य हो गए हैं।

भारतीय वैज्ञानिकों ने कम लागत वाला एक टच-कम-प्रॉक्सिमिटी सेंसर अर्थात स्पर्श-सह-सामीप्य संवेदक विकसित करने के लिए प्रिंटिंग तकनीक के जरिये एक किफायती समाधान प्रदान किया है जिसे टचलेस टच सेंसर कहा जाता है।

कोरोनावायरस महामारी ने हमारी जीवन शैली को महामारी परिदृश्यों के अनुकूल बनाने के प्रयासों को तेज कर दिया है। कामकाज स्वाभाविक रूप से वायरस फैलने के जोखिम को कम करने के लिए रणनीतियों से प्रेरित हो गया हैं, खासतौर से सार्वजनिक स्थलों पर जहां सेल्फ-सर्विस कियोस्क, एटीएम और वेंडिंग मशीनों पर टचस्क्रीन लगभग अपरिहार्य हो गए हैं।

हाल ही में भारत सरकार के विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग (डीएसटी) के स्वायत्त संस्थानों के नैनो और सॉफ्ट मैटर साइंसेज (सीईएनएस) तथा जवाहरलाल नेहरू सेंटर फॉर एडवांस एंड साइंटिफिक रिसर्च (जेएनसीएएसआर), बेंगलुरु के वैज्ञानिकों ने प्रिंटिंग एडेड पैटर्न (लगभग 300 माइक्रोन का रिजॉल्यूशन) पारदर्शी इलेक्ट्रोड के उत्पादन के लिए एक अर्ध-स्वचालित उत्पादन संयंत्र स्थापित किया है जिसमें उन्नत टचलेस स्क्रीन प्रौद्योगिकियों में उपयोग किए जाने की क्षमता है।

प्रो. जी. यू. कुलकर्णी और सहकर्मियों के नेतृत्व में और सीईएनएस में डीएसटी-नैनोमिशन द्वारा वित्त पोषित टीम द्वारा किया गया यह कार्य हाल ही में ’मैटेरियल्स लेटर्स’ पत्रिका में प्रकाशित हुआ है। इस प्रोजेक्ट पर काम कर रहे वैज्ञानिक डॉ. आशुतोष के. सिंह ने कहा, ’’हमने एक टच सेंसर बनाया है जो डिवाइस से 9 सेमी की दूरी से भी नजदीकी या आसपास मडराने वाली चीजों के स्पर्श को महसूस करता है।’’

शोधपत्र के एक अन्य सह-लेखक डॉ. इंद्रजीत मंडल ने कहा, ’’हम अन्य स्मार्ट इलेक्ट्रॉनिक अनुप्रयोगों के लिए उनकी व्यावहारिकता साबित करने के लिए अपने पैटर्न वाले इलेक्ट्रोड का उपयोग करके कुछ और प्रोटोटाइप बना रहे हैं। इन पैटर्न वाले इलेक्ट्रोड को सहयोगी परियोजनाओं का पता लगाने के लिए इच्छुक उद्योगों और आरएंडडी प्रयोगशालाओं को अनुरोध के आधार पर उपलब्ध कराया जा सकता है।’’

नए, कम लागत पैटर्न वाले पारदर्शी इलेक्ट्रोड में उन्नत स्मार्ट इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों जैसे टचलेस स्क्रीन तथा सेंसर में उपयोग किए जाने की काफी संभावना है। यह टचलेस टच सेंसर तकनीक संपर्क से फैलने वाले वायरस को फैलने से रोकने में मदद कर सकती है।



Science: स्पर्श और ध्वनिक सेंसर में संभावित अनुप्रयोगों के लिए विकसित विशेष इलेक्ट्रो-सक्रिय नैनो कणों को विकसित किया गया

Special electro-active nanoparticles developed for potential applications
वैज्ञानिकों ने पॉलीविनाईलिडीन फ्लोराइड (पीवीडीएफ) नैनोकणों में अब तक के न्यूनतम संभव विद्युत क्षेत्र में δ चरण  हासिल किया है, जो पारंपरिक विधियों  की तुलना में 103 अर्थात 1000 गुना कम विद्युत क्षेत्र है। यह अनुप्रयोग आधारित वाणिज्यिक प्रौद्योगिकियों के लिए इस खोज को और अधिक सुविधाजनक बनाता है। यह उपलब्धि हाल ही में 'एप्लाइड फिजिकल लेटर्स' जर्नल में प्रकाशित हुई है ।

इस प्रयास में लगे वैज्ञानिकों में से एक डॉ. मंडल ने बताया कि "नई विधि न केवल पीवीडीएफ में अब तक के सबसे कम संभव विद्युत क्षेत्र के अंतर्गत  पीजोइलेक्ट्रिक δ -चरण को प्रेरित करने का एक उत्कृष्ट तरीका प्रदान करती है बल्कि यह एक एकल चरण प्रक्रिया में नैनोस्ट्रक्चर की आकारिकी को नियंत्रित करने में भी सक्षम बनाती है। इसलिए यह कार्य इस क्षेत्र में नैनो तकनीक के उपयोग की संभावनाओं का मार्ग प्रशस्त करेगा और डेल्टा चरण के अनुप्रयोग पर और अधिक ऐसी संभावनाएं तलाशेगा जो इससे पहले उच्च विद्युत क्षेत्र की आवश्यकता के कारण रुकी  हुई थी। साथ ही यह केवल फिल्म-आधारित नमूनों तक ही सीमित था। इसलिए जैसा कि हमने तय किया था कि हम अब इसे नवीनता और मौजूदा तकनीक के संदर्भ में 10/10 अंक देंगे”।

 अनुप्रयोग-आधारित संभावनाएं पहले उच्च विद्युत क्षेत्र की आवश्यकता के कारण होती थीं। इसके अलावा, अनुप्रयोग भी फिल्म-आधारित उपकरणों तक सीमित थे। वर्तमान निष्कर्ष इससे आगे जाते हैं और कमरे के तापमान पर नई प्रसंस्करण तकनीक के साथ-साथ इस चरण के विभिन्न नैनोस्ट्रक्चर निर्माण का भी पता लगाते हैं।

 इस अवधारणा के साक्ष्य के रूप में नैनो विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संस्थान (आईएनएसटी) के वैज्ञानिकों ने प्रेशर मैपिंग सेंसर, ध्वनिक (एकॉस्टिक) सेंसर, और पीजोइलेक्ट्रिक ऊर्जा संचयन (एनर्जी हार्वेस्टर) के रूप में कुछ अनुप्रयोगों को भी दिखाया है। इन नैनोकणों के पीजोइलेक्ट्रिक गुणों के अनुप्रयोग को प्रदर्शित करने के लिए एक पीजोइलेक्ट्रिक नैनो जेनरेटर भी विकसित किया  गया था और प्रेशर मैपिंग सेंसर, एकॉस्टिक सेंसर एवं ऊर्जा संचयन अध्ययनों के रूप में इसके व्यावहारिक अनुप्रयोगों का प्रदर्शन किया गया था।

इस उपकरण की उच्च ध्वनिक संवेदनशीलता ध्वनिक शोर, भाषण संकेतों, श्वसन गति की पहचान क्षमता को इंगित करने के साथ ही इसकी प्रौद्योगिक प्रयोज्यता का भी विस्तार  करती है। इसके अलावा, नैनो विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संस्थान (आईएनएसटी) टीम ने पॉलीविनाईलिडीन फ्लोराइड (पीवीडीएफ) नैनोकणों के  δ -चरण का उपयोग किए जाते समय एंटी-फाइब्रिलाइजिंग प्रभाव भी देखा जो अल्जाइमर जैसी बीमारियों की रक्षा के लिए बहुत आवश्यक है और जो स्वास्थ्य देखभाल क्षेत्र में उभरते भविष्य के अनुप्रयोगों के लिए अवसर पैदा करता है।

भारत का 41वां अंटार्कटिका साइंटिफिक एक्सपीडिशन: जानें दक्षिण गंगोत्री, मैत्री और भारती स्टेशन के बारे में

India launches the 41st Scientific Expedition to Antarctica

भारत ने दक्षिणी श्वेत महाद्वीप में अपने दल के पहले बैच के आगमन के साथ अंटार्कटिका के लिए 41वें साइंटिफिक एक्सपीडिशन की सफलतापूर्वक शुरुआत की है। 23 वैज्ञानिकों और सहायक कर्मचारियों का पहला जत्था भारतीय अंटार्कटिक स्टेशन मैत्री पहुंचा। चार अन्य बैच जनवरी 2022 के मध्य तक ड्रोमलान फैसिलिटी और चार्टर्ड आइस-क्लास पोत एमवी वैसिलिय-गोलोवनिन का उपयोग करके हवाई मार्ग से अंटार्कटिका में उतरेंगे।

1981 में शुरू हुए भारतीय अंटार्कटिक कार्यक्रम ने 40 वैज्ञानिक एक्सपीडिशन पूरे कर लिए हैं, और अंटार्कटिका में तीन स्थायी अनुसंधान बेस स्टेशन बनाए हैं जिनका नाम दक्षिण गंगोत्री (1983), मैत्री (1988) और भारती (2012) है। वर्तमान में मैत्री और भारती पूरी तरह से चालू हैं। गोवा में स्थित नेशनल सेंटर फॉर पोलर एंड ओशन रिसर्च (एनसीपीओआर), पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के तहत एक स्वायत्त संस्थान है जो पूरे भारतीय अंटार्कटिक कार्यक्रम का प्रबंधन करता है।

इस 41वें एक्सपीडिशन के दो प्रमुख कार्यक्रम हैं। पहले कार्यक्रम में भारती स्टेशन पर अमेरी आइस शेल्फ का भूवैज्ञानिक अन्वेषण शामिल है। इससे अतीत में भारत और अंटार्कटिका के बीच की कड़ी का पता लगाने में मदद मिलेगी। दूसरे कार्यक्रम में टोही सर्वेक्षण और मैत्री के पास 500 मीटर आइस कोर की ड्रिलिंग के लिए प्रारंभिक कार्य शामिल है। यह पिछले 10,000 वर्षों से एक ही जलवायु संग्रह से अंटार्कटिक जलवायु, पश्चिमी हवाओं, समुद्री-बर्फ और ग्रीनहाउस गैसों की समझ में सुधार करने में मदद करेगा। आइस कोर ड्रिलिंग ब्रिटिश अंटार्कटिक सर्वे और नॉर्वेजियन पोलर इंस्टीट्यूट के सहयोग से की जाएगी। वैज्ञानिक कार्यक्रमों को पूरा करने के अलावा, यह मैत्री और भारती में जीवन समर्थन प्रणालियों के संचालन और रखरखाव के लिए भोजन, ईंधन, प्रावधानों और पुर्जों की वार्षिक आपूर्ति की भरपाई करेगा।

1981 में शुरू हुए भारतीय अंटार्कटिक कार्यक्रम ने 40 वैज्ञानिक एक्सपीडिशन पूरे कर लिए हैं, और अंटार्कटिका में तीन स्थायी अनुसंधान बेस स्टेशन बनाए हैं जिनका नाम दक्षिण गंगोत्री (1983), मैत्री (1988) और भारती (2012) है। वर्तमान में मैत्री और भारती पूरी तरह से चालू हैं। गोवा में स्थित नेशनल सेंटर फॉर पोलर एंड ओशन रिसर्च (एनसीपीओआर), पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के तहत एक स्वायत्त संस्थान है जो पूरे भारतीय अंटार्कटिक कार्यक्रम का प्रबंधन करता है।

भारत अंटार्कटिका महाद्वीप को कोविड-19 महामारी से मुक्त और सुरक्षा के उच्चतम मानकों को बनाए रखने के लिए प्रतिबद्ध है इसलिए भारतीय दल अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स), नई दिल्ली में एक सख्त चिकित्सा परीक्षा के बाद अंटार्कटिका पहुंच गया है। इसके अलावा इस दल ने पर्वतारोहण और स्कीइंग संस्थान, आईटीबीपी औली, उत्तराखंड में बर्फ के अनुकूलन और अस्तित्व के लिए प्रशिक्षण प्राप्त किया है और दक्षिण अफ्रीका के केप टाउन में 14 दिनों के क्वारेनटीन सहित एक कड़े स्वच्छता प्रोटोकॉल का पालन किया है।

सर्दियों में 48 सदस्यों की टीम को छोड़कर, इस दल की मार्च के आखिर में या अप्रैल की शुरुआत में केप टाउन लौटने की उम्मीद है। यह पिछले 40वें अभियान की ओवर विंटर टीम को भी वापस लाएगा। 41वें अभियान का नेतृत्व डॉ. शैलेंद्र सैनी, वैज्ञानिक राष्ट्रीय ध्रुवीय और महासागर अनुसंधान केंद्र (वॉयेज लीडर), श्री हुइड्रोम नागेश्वर सिंह, मेट्रोलॉजिस्ट, इंडिया मेट्रोलॉजिकल डिपार्टमेंट (लीडर, मैत्री स्टेशन) और श्री अनूप कलायिल सोमन, वैज्ञानिक भारतीय भू-चुंबकत्व संस्थान (नेता, भारती स्टेशन) द्वारा किया जा रहा है।

शोधकर्ताओं ने हमारे निकटवर्ती ब्रह्मांड में आपस में विलीन हो रहे तीन महाविशाल ब्लैकहोल्स का पता लगाया

Three Super-massive Black Holes Merging Together in Our Nearby Universe
भारतीय शोधकर्ताओं ने तीन आकाशगंगाओं से ऐसे तीन महा विशाल ब्लैक होल्स  की खोज की है जो एक साथ मिलकर एक ट्रिपल सक्रिय गैलेक्टिक न्यूक्लियस बनाते हैं। यह एक नई खोजी गई आकाशगंगा के केंद्र में एक ऐसा ठोस क्षेत्र है जिसमें सामान्य से बहुत अधिक चमक है। हमारे निकटवर्ती ब्रह्मांडों में हुई यह दुर्लभ घटना बताती है कि विलय करने वाले छोटे समूह बहुसंख्यक महाविशाल ब्लैक होल का पता लगाने के लिए आदर्श प्रयोगशालाएं हैं और ये ऐसी दुर्लभ घटनाओं का पता लगाने की संभावना को बढ़ाते हैं।

किसी प्रकार का प्रकाश उत्सर्जित नहीं करने के कारण महाविशाल ब्लैक होल का पता लगाना कठिन ही होता है ,लेकिन वे अपने परिवेश के साथ  समाहित होकर अपनी उपस्थिति प्रकट कर सकते हैं। जब आसपास से धूल और गैस ऐसे किसी सुपरमैसिव ब्लैक होल पर गिरती है  तो उसका कुछ  द्रव्यमान ब्लैक होल द्वारा निगल लिया जाता है। लेकिन इसमें से कुछ  द्रव्यमान ऊर्जा में परिवर्तित हो जाता है और विद्युत चुम्बकीय विकिरण के रूप में उत्सर्जित होता है जिससे वह ब्लैक होल बहुत चमकदार दिखाई देता है। इन्हें  एक्टिव गैलेक्टिक न्यूक्लियस-एजीएन कहा जाता है और ऐसे नाभिक आकाशगंगा और उसके वातावरण में भारी मात्रा में आयनित कण और ऊर्जा छोड़ते हैं। तदुपरांत ये दोनों आकाशगंगा के चारों ओर का माध्यम विकसित करने और अंततः उस  आकाशगंगा के विकास और उसके आकार में वृद्धि में अपना योगदान देते हैं।

भारतीय खगोल भौतिकी संस्थान (इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एस्ट्रोफिजिक्स) के शोधकर्ताओं की एक टीम जिसमें ज्योति यादव, मौसमी दास और सुधांशु बर्वे  शामिल हैं ने  कॉलेज डी फ्रांस कॉम्ब्स, चेयर गैलेक्सीज एट कॉस्मोलोजी, पेरिस, के फ्रैंकोइस कॉम्ब्सइ साथ एनजीसी 7733 और एनजीसी 7734 की जोड़ी का संयुक्त रूप से अध्ययन करते हुए  एक ज्ञात इंटर-एक्टिव आकाशगंगा एनजीसी 7734 के केंद्र से असामान्य उत्सर्जन और एनजीसी 7733 की उत्तरी भुजा के साथ एक बड़े चमकीले झुरमुट (क्लम्प) का पता लगाया । उनकी जांच से पता चला है कि यह झुरमुट आकाशगंगा एनजीसी 7733 की तुलना में एक अलग ही गति से आगे बढ़ रहा है।

वैज्ञानिकों का यहाँ आशय यह भी  था कि यह झुरमुट एनजीसी 7733 का हिस्सा नहीं  होकर उत्तरी भुजा  के पीछे की एक छोटी किन्तु अलग आकाशगंगा थी। उन्होंने इस आकाशगंगा का नाम एनजीसी 7733 एन  रखा है।

जर्नल एस्ट्रोनॉमी एंड एस्ट्रोफिजिक्स में एक पत्र के रूप में प्रकाशित इस अध्ययन में पहली भारतीय अंतरिक्ष वेधशाला पर लगे एस्ट्रोसैट अल्ट्रा-वायलेट इमेजिंग टेलीस्कोप (यूवीआईटी), यूरोपियन इंटीग्रल फील्ड ऑप्टिकल टेलीस्कोप जिसे एमयूएसई भी कहा जाता है, और  जो चिली में  बहुत बड़े आकार के दूरदर्शी (वेरी लार्ज  टेलीस्कोप - वीएलटी) पर स्थापित किया किया गया है, से मिले आंकड़ों  के साथ ही  दक्षिण अफ्रीका में ऑप्टिकल टेलीस्कोप से प्राप्त (आईआरएसएफ) से प्राप्त इन्फ्रारेड चित्रों का उपयोग किया गया है।

अल्ट्रावायलेट-यूवी और एच-अल्फा छवियों ने निकल रही तरंगों के अतिम सिरे (टाइडल टेल्स) के साथ एक नए तारे के निर्माण का प्रकटीकरण  करके वहां तीसरी आकाशगंगा की उपस्थिति का भी समर्थन किया जो एक बड़ी आकाशगंगा के साथ एनजीसी 7733 एन के विलय से बन सकती थी। इन दोनों  आकाशगंगाओं के  केंद्र (नाभिक) में एक सक्रिय महाविशाल ब्लैक होल बना हुआ है और इसलिए इनसे एक बहुत ही दुर्लभ एजीएन सिस्टम बन जाती  है।

शोधकर्ताओं के अनुसार, आकाशगंगा के विकास को प्रभावित करने वाला एक प्रमुख कारक आकाशगंगाओं की  परस्पर क्रिया है  जो तब होती है जब विभिन्न आकाशगंगाएं एक-दूसरे के निकट आती हैं और एक-दूसरे पर अपना   जबरदस्त गुरुत्वाकर्षण बल लगाती हैं। इस तरह आकाशगंगाओं के आपस में मिलते समय उनमे विद्यमान  महाविशाल ब्लैकहोल्स के भी एक-दूसरे के एक दूसरे के पास आने की सम्भावना प्रबल हो जाती हैं। अब द्विगुणित हो चुके ब्लैक होल्स अपने परिवेश से गैस का उपभोग करना शुरू कर देते हैं और  दोहरी सक्रिय मंदाकिनीय नाभिक प्रणाली (एजीएन) में परिवर्तित हो जाते  हैं।

भारतीय खगोलभौतिकी संस्थान (आईआईए) की टीम इसका घटना क्रम की व्याख्या करते हुए बताती है कि अगर दो आकाशगंगाएं आपस में टकराती हैं तो उनके ब्लैक होल भी अपनी गतिज ऊर्जा को आसपास की गैस में स्थानांतरित करके पास आ जाएंगे। ब्लैकहोल्स के बीच की दूरी समय के साथ तब तक घटती जाती है जब तक कि उनके बीच का अंतर एक पारसेक (3.26 प्रकाश-वर्ष) के आसपास न हो जाए। इसके  बाद दोनों ब्लैक होल तब अपनी और अधिक गतिज ऊर्जा का व्यय नहीं कर पाते हैं ताकि वे और भी करीब आ सकें और एक-दूसरे में विलीन हो सकें। इसे अंतिम पारसेक समस्या के रूप में जाना जाता है। तीसरे ब्लैक होल की उपस्थिति इस समस्या को हल कर सकती है। आपस में विलीन हो रहे दोनों ब्लैकहोल ऐसे में अपनी ऊर्जा को तीसरे ब्लैकहोल में स्थानांतरित कर सकते हैं और तब एक दूसरे के साथ विलय कर सकते हैं।

इससे पहले अतीत में कई सक्रिय एजीएन के जोड़ों का पता चला है। लेकिन तिहरी सक्रिय मंदाकिनीय नाभिक प्रणाली (ट्रिपल एजीएन) अत्यंत दुर्लभ हैं  और एक्स-रे अवलोकनों का उपयोग शुरू  किए जाने  से पहले गिनती की  ही ऐसी प्रणालियों के बारे में जानकारी थी। तथापि  भारतीय खगोलभौतिकी संस्थान (आईआईए) की टीम को उम्मीद है कि आकाशगंगाओं के छोटे विलय वाले समूहों में ऐसी ट्रिपल एजीएन प्रणाली और अधिक सामान्य होगी। हालांकि यह अध्ययन केवल एक ही प्रणाली पर केंद्रित है। परिणाम बताते हैं कि इस प्रकार विलीन  होने वाले छोटे समूह कई महाविशाल ब्लैक होल्स का पता लगाने के लिए अपने आप में आदर्श प्रयोगशालाएं हैं।


 

स्पेस टूरिज्म-द नेक्स्ट फ्रंटियर: Facts in brief

Space Tourism-The Next Frontier: Facts in brief
अंतरिक्ष पर्यटन या वाणिज्यिक अंतरिक्ष यात्रा की अवधारणा नई नहीं है  अंतरिक्ष पर्यटन, मनोरंजन के व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए अंतरिक्ष यात्रा है।  अंतरिक्ष पर्यटन हाल ही में दो अमेरिकी अरबपतियों, रिचर्ड ब्रोंसन और जेफ बेजोस की वजह से खबरों में रहा है, जो अपने निजी रॉकेट और विमान का उपयोग करके पर्यटकों के रूप में अंतरिक्ष में गए थे।

नेहरू विज्ञान केंद्र, मुंबई ने एयरोनॉटिकल सोसाइटी ऑफ इंडिया, मुंबई शाखा के सहयोग से 27 जुलाई, 2021 को 'स्पेस टूरिज्म: द नेक्स्ट फ्रंटियर' पर एक ऑनलाइन व्याख्यान का आयोजन किया। वीएम मेडिकल सेंटर, मुंबई की एयरोस्पेस मेडिसिन स्पेशलिस्ट, डॉ. पुनीता मसरानी ने व्याख्यान में वाणिज्यिक अंतरिक्ष यात्रा के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की।

अंतरिक्ष पर्यटन या वाणिज्यिक अंतरिक्ष यात्रा की अवधारणा नई नहीं है और इसके विचार की अवधारणा से वास्तविकता तक के इतिहास पर डॉ. पुनीता ने ऑनलाइन व्याख्यान में चर्चा की। अंतरिक्ष पर्यटन, मनोरंजन के व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए अंतरिक्ष यात्रा है। डॉ. पुनीता ने बताया कि अंतरिक्ष पर्यटन हाल ही में दो अमेरिकी अरबपतियों, रिचर्ड ब्रोंसन और जेफ बेजोस की वजह से खबरों में रहा है, जो अपने निजी रॉकेट और विमान का उपयोग करके पर्यटकों के रूप में अंतरिक्ष में गए थे।

व्याख्यान में डॉ. पुनीता ने कहा कि पहले नासा और रूसी अंतरिक्ष एजेंसी ने पर्यटकों को अंतरिक्ष यात्रा के लिए ले जाना शुरू किया था। यह प्रक्रिया अत्यधिक कड़ी थी। रूसी सोयुज अंतरिक्ष यान हर 6 महीने में पर्यटकों को ले जाता था। 'स्पेस एडवेंचर्स अंतरिक्ष पर्यटन के क्षेत्र में पहली एजेंसी थी। डॉ. पुनीता ने बताया कि एजेंसी की शुरुआत 1998 में अमेरिकी अरबपति रिचर्ड गैरियट ने की थी। एजेंसी ने रूसी सोयुज रॉकेट्स पर मध्यस्थता की सवारी की पेशकश की थी।

डॉ. पुनीता ने कहा, जबकि नासा और रूसी अंतरिक्ष एजेंसी दोनों ने अंतरिक्ष पर्यटन को रोक दिया, उद्योगपतियों और उद्यमियों ने सोचा कि वे निजी मिशन शुरू कर सकते हैं ताकि अधिक से अधिक लोग अंतरिक्ष की यात्रा कर सकें। इसने अंतरिक्ष पर्यटन की अवधारणा को जन्म दिया।


डॉ. पुनीता ने अपने व्याख्यान में कहा कि डेनिस टीटो पहले वाणिज्यिक अंतरिक्ष यात्री थे, जिसके पहले केवल अंतरिक्ष यात्री ही अनुसंधान उद्देश्यों के लिए अंतरिक्ष में जाते थे। टीटो अप्रैल 2001 में रूसी सोयुज टीएमए लॉन्च व्हीकल पर अंतरिक्ष में गए। मार्क शटलवर्थ, ग्रेग ऑलसेन, अनुश अंसारी, चार्ल्स सिमोनी, रिचर्ड गैरियट, गाइ लालिबर्टे अन्य अंतरिक्ष यात्री थे जो 2002 से 2009 के बीच अंतरिक्ष की शुल्क के साथ अंतरिक्ष यात्राओं पर गए थे। निजी अंतरिक्ष यात्रियों को कड़े चयन मानकों, व्यापक प्रशिक्षण और चुनौतियों का मुकाबला करने के लिए अपनाए गए उपायों से गुजरना पड़ता था।

डॉ. पुनीता ने निजी अंतरिक्ष यात्रा के क्षेत्र में काम कर रही विभिन्न कंपनियों के बारे में भी विस्तार से चर्चा की:

ब्लू ओरिजिन की स्थापना 2000 में एमज़ॉन के मुख्य कार्यकारी अधिकारी-सीईओ जेफ बेजोस ने की थी। ब्लू ओरिजिन के दोबारा उपयोग होने वाले रॉकेट न्यू शेपर्ड ने हाल ही में चार निजी नागरिकों के साथ पहली मानव उड़ान सफलतापूर्वक पूरी की। चालक दल में जेफ बेजोस, मार्क बेजोस, वैली फंक और ओलिवर डेमन शामिल थे। रॉकेट न्यू शेफर्ड ने 20 जुलाई, 2021 को संयुक्त राज्य अमेरिका के वेस्ट टेक्सास से उड़ान भरी।

स्पेसएक्स एक अमेरिकी एयरोस्पेस निर्माता है, जिसकी स्थापना 2002 में टेस्ला मोटर्स के एलॉन मस्क ने की थी। कंपनी ने ड्रैगन स्पेसक्राफ्ट विकसित किया है जिसका उपयोग नासा के अंतरिक्ष यात्रियों ने अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन जाने के लिए किया था। स्पेस एक्स नागरिकों को 10 दिन की शुल्क के साथ यात्रा पर अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन भेजने की योजना बना रहा है। स्पेस एक्स चंद्रमा और मंगल की यात्रा की भी योजना बना रहा है।

वर्जिन गेलेक्टिक की स्थापना 2004 में ब्रिटिश उद्यमी रिचर्ड ब्रैनसन ने की थी। रिचर्ड ब्रैनसन और उनका दल हाल ही में अपने वर्जिन गेलेक्टिक रॉकेट विमान पर सवार होकर न्यू मैक्सिको रेगिस्तान से 50 मील से अधिक ऊपर पहुंचे और सुरक्षित रूप से पृथ्वी पर वापस लौट आए।

डॉ. पुनीता ने बताया कि जहां ये सभी मिशन अंतरिक्ष की सवारी की पेशकश करते हैं, वहीं नासा ने हाल ही में निजी नागरिकों को एक छोटी यात्रा के लिए अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन पर ले जाने की अनुमति दी है। एक्सिऑम स्पेस जैसी कंपनियां निजी अंतरिक्ष यात्रियों के प्रशिक्षण में शामिल हैं। कंपनी भविष्य में निजी स्पेस स्टेशन की भी योजना बना रही है।

व्याख्यान में, डॉ. पुनीता ने अंतरिक्ष पर्यटन में शामिल बुनियादी शब्दावली जैसे कक्षीय उड़ानें, उप कक्षीय उड़ानें, पृथ्वी की निचली कक्षाओं के बारे में भी बताया। फेडरेशन एरोनॉटिक इंटरनेशनल के अनुसार समुद्र तल से 100 किलोमीटर से अधिक की ऊँचाई पर अर्थात् कर्मन रेखा अंतरिक्ष है। वही एजेंसी 50 मील (80.47 किलोमीटर) की ऊंचाई को अंतरिक्ष उड़ान के रूप में अर्हता प्राप्त करने की ऊंचाई मानती है।

डॉ. पुनीता ने यह भी बताया कि इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन लो अर्थ ऑर्बिट (थर्मोस्फीयर) में मॉड्यूलर स्पेस स्टेशन है। स्टेशन 1998 में स्थापित किया गया था। यह एक बहुराष्ट्रीय सहयोगी परियोजना है जिसमें हिस्सा लेने वाली पांच अंतरिक्ष एजेंसियां नासा (संयुक्त राज्य अमेरिका), रोस्कोस्मोस (रूस), जेएक्सए (जापान), ईएसए (यूरोप), और सीएसए (कनाडा)​​शामिल हैं।

डॉ. पुनीता ने शामिल विज्ञान और जोखिम, जागरूकता, चिंताओं और चिकित्सा सूचित सहमति पर चर्चा की जो पर्यटन का अनिवार्य हिस्सा हैं। उन्होंने आगे बताया कि उड़ान के बाद की चिकित्सा समस्याएं या स्थितियां क्या हो सकती हैं और मानव शरीर और मस्तिष्क पर अंतरिक्ष यात्रा का प्रभाव क्या हो सकता है।

नेहरू विज्ञान केंद्र के बारे में

नेहरू विज्ञान केंद्र (एनएससी) भारत के सबसे बड़े विज्ञान केंद्रों में से एक है और देश के पश्चिमी क्षेत्र में छात्रों के लिए एक महत्वपूर्ण स्थान है। यह राष्ट्रीय विज्ञान संग्रहालय परिषद का पश्चिमी क्षेत्रीय मुख्यालय है और पश्चिमी क्षेत्र में पांच अन्य विज्ञान केंद्रों की गतिविधियों का संचालन और समन्वय करता है: रमन विज्ञान केंद्र, नागपुर, क्षेत्रीय विज्ञान केंद्र, भोपाल, क्षेत्रीय विज्ञान केंद्र, कालीकट, गोवा विज्ञान केंद्र, पणजी और जिला विज्ञान केंद्र, धरमपुर। एनएससी में एक वर्ष में 7.5 लाख से अधिक आगंतुक आते हैं। यह केंद्र स्कूली छात्रों के लिए प्रमुख आकर्षण केंद्र और विज्ञान की समझ बढ़ाने और देश में वैज्ञानिक दृष्टिकोण प्रदान करने में उत्कृष्टता का केंद्र साबित हुआ है।

राष्ट्रीय विज्ञान संग्रहालय परिषद के बारे में

राष्ट्रीय विज्ञान संग्रहाय परिषद, भारत में विज्ञान केंद्रों और विज्ञान संग्रहालयों का शीर्ष निकाय, भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय के अधीन एक स्वायत्त वैज्ञानिक संगठन के रूप में कार्य करता है। यह देश भर में 25 विज्ञान केंद्रों की गतिविधियों का समन्वय करता है। परिषद विज्ञान केंद्रों और संग्रहालयों, अत्याधुनिक इंटरैक्टिव प्रदर्शनों और कार्यक्रमों और विज्ञान संचार में मानव संसाधन विकास के विकास में माहिर है। परिषद को मॉरीशस के लिए टर्नकी आधार पर एक विज्ञान केंद्र विकसित करने का गौरव प्राप्त है। यह स्कूली छात्रों के लिए राष्ट्रव्यापी वैज्ञानिक कार्यक्रमों और गतिविधियों का आयोजन करता है। आईएओ के अलावा, परिषद को राष्ट्रीय विज्ञान संगोष्ठी, राष्ट्रीय विज्ञान नाटक प्रतियोगिता और विज्ञान एक्सपो आदि जैसे आयोजनों के लिए भी जाना जाता है। परिषद लगभग 10 मिलियन आगंतुकों और 22 ग्रामीण क्षेत्रों और अन्य कार्यक्रमों और गतिविधियों के लिए यात्रा संग्रहालय बसों द्वारा सेवा करती है, जिसमें विभिन्न विज्ञान केंद्रों में अपनी इंटरैक्टिव दीर्घाओं के माध्यम से 25 प्रतिशत छात्र शामिल हैं। (S0urce PIB)

चंद्रयान-3 पर कार्य प्रगति पर, 2022 की तीसरी तिमाही के दौरान लॉन्च होने की संभावना: डॉ. जितेन्द्र सिहं

केंद्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी राज्यमंत्री (स्वतंत्र प्रभार); पृथ्वी विज्ञान राज्यमंत्री (स्वतंत्र प्रभार), प्रधानमंत्री कार्यालय, कार्मिक, लोक शिकायत, पेंशन, परमाणु ऊर्जा, अंतरिक्ष राज्यमंत्री डॉ. जितेन्द्र सिहं ने कहा कि अब सामान्य कार्य आरंभ होने को देखते हुए चंद्रयान-3 के 2022 की तीसरी तिमाही में लॉन्च होने की संभावना है। आज लोकसभा में एक प्रश्नकाल का उत्तर देते हुए उन्होंने कहा कि चंद्रयान-3 पर कार्य प्रगति पर है।

चंद्रयान-3 के कार्य में आकृति को अंतिम रूप दिया जाना, उप-प्रणालियों का निर्माण, समेकन, अंतरिक्ष यान स्तरीय विस्तृत परीक्षण और पृथ्वी पर प्रणाली के निष्पादन के मूल्यांकन के लिए कई विशेष परीक्षण जैसी विभिन्न प्रक्रियाएं शामिल हैं। 

कार्य की प्रक्रिया कोविड-19 महामारी के कारण बाधित हो गई थी। बहरहाल, लॉकडाउन अवधि के दौरान भी वर्क फ्रॉम होम मोड में सभी कार्य किए गए। अनलॉक अवधि आरंभ होने के बाद चंद्रयान-3 पर कार्य फिर से आरंभ हो गया और अब यह कार्य संपन्न होने के अग्रिम चरण में है।

डीआरडीओ प्रयोगशाला ने हल्की बुलेट प्रूफ जैकेट निर्मित की

DRDO Lab Develops Light Weight Bullet Proof Jacket
रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) लैब डिफेंस मैटेरियल्स एंड स्टोर्स रिसर्च एंड डेवलपमेंट एस्टेब्लिशमेंट (डीएमएसआरडीई), कानपुर ने भारतीय सेना की गुणात्मक आवश्यकताओं को पूरा करते हुए 9.0 किलोग्राम वजनी हल्के वजन वाली बुलेट प्रूफ जैकेट (बीपीजे) विकसित की है । 

फ्रंट हार्ड आर्मस पैनल (एफएचएपी) जैकेट का परीक्षण टर्मिनल बैलिस्टिक अनुसंधान प्रयोगशाला (टीबीआरएल), चंडीगढ़ में किया गया और इस परीक्षण ने प्रासंगिक बीआईएस मानकों को पूरा किया । इस महत्वपूर्ण विकास का महत्व इस तथ्य में निहित है कि बीपीजे के वजन में कमी का प्रत्येक ग्राम युद्धक्षेत्र में बने रहने के लिहाज से सैनिक का आराम बढ़ाने में महत्वपूर्ण है ।

 इस तकनीक से मध्यम आकार के बीपीजे का वजन 10.4 से 9.0 किलोग्राम तक कम हो जाता है । इस उद्देश्य के लिए प्रयोगशालाओं में बहुत विशिष्ट सामग्री और प्रक्रमण प्रौद्योगिकियों का विकास किया गया है । 

रक्षा मंत्री श्री राजनाथ सिंह ने डीआरडीओ के वैज्ञानिकों और उद्योग को हल्के वजन वाली बीपीजे विकसित करने के लिए बधाई दी जिससे सैनिक और अधिक आराम महसूस कर पाएंगे । रक्षा अनुसंधान एवं विकास विभाग के सचिव और रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) के अध्यक्ष डॉ जी सतीश रेड्डी ने डीएमएसआरडीई टीम को इस निर्माण के लिए बधाई दी ।  (Source PIB)

"अटल टनल" दुनिया की सबसे लंबी राजमार्ग टनल: जानें खास बातें

Atal Tunnel: Things You Need to Know
अटल टनल दुनिया की सबसे लंबी राजमार्ग टनल है। यह टनल 9.02 किलोमीटर लंबी है। यह पूरे साल मनाली कोलाहौल-स्पीति घाटी से जोड़कर रखती है। इससे पहले यह घाटी भारी बर्फबारी के कारण लगभग 6 महीने तक अलग-थलग रहती थी।

यह टनलहिमालय की पीर पंजाल श्रृंखला में औसत समुद्र तल (एमएसएल) से 3000 मीटर (10,000 फीट) की ऊंचाई पर अति-आधुनिक विनिर्देशों के साथ बनाई गई है।

यह टनल मनाली और लेह के बीच सड़क की दूरी 46 किलोमीटर कम करती हैऔर दोनों स्‍थानों के बीच लगने वालेसमय में भी लगभग 4 से 5 घंटे की बचत करती है।

अटल टनल का दक्षिण पोर्टल (एसपी) मनाली से 25 किलोमीटर दूर 3060 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है, जबकि इसका उत्तर पोर्टल (एनपी) लाहौल घाटी में तेलिंगसिस्सुगांव के पास 3071 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है।

यह घोड़े की नाल के आकार में8 मीटर सड़क मार्ग के साथ सिंगल ट्यूब और डबल लेन वाली टनल है। इसकी ओवरहेड निकासी 5.525 मीटर है। यह 10.5 मीटर चौड़ी है और इसमें 3.6x 2.25 मीटर फायर प्रूफ आपातकालीन निकास टनल भी है, जिसे मुख्य टनल में ही बनाया गया है।

अटल टनल को अधिकतम 80 किलोमीटर प्रति घंटे की गति के साथ प्रतिदिन 3000 कारों और 1500 ट्रकों के यातायात घनत्‍व के लिए डिजाइन किया गया है।

यहटनल सेमी ट्रांसवर्स वेंटिलेशन सिस्टम,एससीएडीएनियंत्रित अग्निशमन, रोशनी और निगरानी प्रणाली सहित अति-आधुनिक इलेक्‍ट्रो-मैकेनिकल प्रणाली से युक्‍त है।

 प्रमुख विशेषताएं इस प्रकार हैं:-

  • दोनों पोर्टल पर टनल प्रवेश बैरियर।
  • आपातकालीन संचार के लिए प्रत्येक 150 मीटर दूरी पर टेलीफोन कनेक्शन।
  • प्रत्येक 60 मीटर दूरी पर फायर हाइड्रेंट तंत्र।
  •  प्रत्येक 250 मीटर दूरी पर सीसीटीवी कैमरों से युक्‍त स्‍वत: किसी घटना का पता लगाने वाली प्रणाली लगी है।
  •  प्रत्येककिलोमीटर दूरी पर वायु गुणवत्ता निगरानी।
  •  प्रत्येक 25 मीटर परनिकासी प्रकाश/निकासी संकेत।
  •  पूरीटनल में प्रसारण प्रणाली।
  •  प्रत्‍येक 50 मीटर दूरी पर फायर रेटिड डैम्पर्स।
  •  प्रत्येक 60 मीटर दूरी पर कैमरे लगे हैं।

जब स्‍वर्गीय श्री अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे तब 03 जून, 2000 को रोहतांग दर्रे के नीचे एक रणनीतिक टनल का निर्माण करने का ऐतिहासिक निर्णय लिया गया था। टनल के दक्षिण पोर्टल की पहुंच रोड़ की आधारशिला 26 मई, 2002 रखी गई थी।

सीमा सड़क संगठन (बीआरओ) ने प्रमुख भूवैज्ञानिक, भूभाग और मौसम की चुनौतियों पर काबू पाने के लिए अथक परिश्रम किया।इन चुनौतियों मे सबसे कठिन प्रखंड587 मीटर लंबा सेरी नाला फॉल्ट जोन शामिल है, दोनों छोर परसफलता 15 अक्टूबर, 2017 को प्राप्‍तहुईथी।

प्रधानमंत्री श्री नरेन्‍द्र मोदी के नेतृत्‍व में केन्‍द्रीय मंत्रिमंडलकी बैठक 24 दिसम्‍बर 2019 को आयोजित हुई थी,जिसमें पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा दिए गए योगदान को सम्‍मान प्रदान करने के लिए रोहतांग टनल का नाम अटल टनल रखने का निर्णय लिया गया था।(Source: PIB)


Facts in Brief चंद्रमा स्थित "साराभाई क्रेटर ": जानें क्या है तथ्य और क्यों है महत्वपूर्ण

Sarabhai Crater Situated on Moon: Things you need to Know
डॉ.विक्रम साराभाई के नाम पर क्रेटर का नाम "साराभाई" क्रेटर रखा गया है और इस क्रेटर से लगभग 250 से 300 किलोमीटर पूर्व में वह स्थान है जहाँ अपोलो 17 और लूना 21 मिशन उतरे थे.

इसरो सूत्रों के अनुसार, साराभाई क्रेटर के 3डी चित्रों से पता चलता है कि क्रेटर की गहराई लगभग 1.7 किलोमीटर है, जो उसके उभरे हुए रिम से लिया गया है और क्रेटर की दीवारों का ढलान 25 से 35 डिग्री के बीच है. ये निष्कर्ष अंतरिक्ष वैज्ञानिकों को लावा से भरे चंद्र क्षेत्र पर आगे की प्रक्रिया को समझने में मदद करेंगे

चंद्रयान -2 डिजाइन और महत्वपूर्ण वैज्ञानिक डेटा भी प्रदान करता है। वैश्विक उपयोग के लिए चंद्रयान -2 से प्राप्त वैज्ञानिक डेटा की सार्वजनिक रिलीज अक्टूबर 2020 में शुरू होगी.

 भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम के जनक डॉ विक्रम. साराभाई के शताब्दी समारोह के एक वर्ष पूरा होने के अवसर पर, भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने उन्हें विशेष रूप में श्रद्धांजलि देते हुए घोषणा की है कि चंद्रयान 2 ऑर्बिटर ने चंद्रमा के "साराभाई" क्रेटर के चित्र लिए हैं.

.केंद्रीय पूर्वोत्तर क्षेत्र विकास राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) व प्रधानमंत्री कार्यालय, कार्मिक, लोक शिकायत, पेंशन, परमाणु ऊर्जा और अंतरिक्ष राज्य मंत्री डॉ. जितेंद्र सिंह ने आज कहा कि भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम के जनक डॉ विक्रम. साराभाई के शताब्दी समारोह के एक वर्ष पूरा होने के अवसर पर, भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने उन्हें विशेष रूप में श्रद्धांजलि देते हुए घोषणा की है कि चंद्रयान 2 ऑर्बिटर ने चंद्रमा के "साराभाई" क्रेटर के चित्र लिए हैं.

डॉ. जितेंद्र सिंह ने कहा कि डॉ. साराभाई का जन्मशताब्दी वर्ष 12 अगस्त को पूरा हुआ और यह उनके लिए एक श्रद्धांजलि है. इसरो की हाल की उपलब्धियां, जिन्होंने भारत को दुनिया के अग्रिम पंक्ति में ला खड़ा किया है, साराभाई के दूरदर्शी सपने को प्रमाणित करता है.

डॉ. जितेंद्र सिंह ने कहा, यह जानना सुखद है कि भारत के 74वें स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर, इसरो ने देश की शानदार अंतरिक्ष यात्रा में गौरव बढ़ाने के लिए एक और योगदान दिया है. यह यात्रा साराभाई और उनकी टीम द्वारा विभिन्न बाधाओं के बावजूद छह दशक पहले शुरू की गई थी. 

 उन्होंने कहा कि.प्रत्येक भारतीय गर्व और आत्मविश्वास से भरा हुआ है क्योंकि भारत के अंतरिक्ष मिशनों द्वारा प्रदान किए गए इनपुट का उपयोग आज दुनिया के उन देशों द्वारा भी किया जा रहा है जिन्होंने अपनी अंतरिक्ष यात्रा हमसे बहुत पहले शुरू की थी.

मोतियाबिंद: INST वैज्ञानिकों ने किया सरल, सस्ती और बिना ऑपरेशन के इलाज की तकनीक विकसित

भारत सरकार के विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग के अंतर्गत आने वाले एक स्वायत्त संस्थान नैनो विज्ञान और प्रौद्योगिकी संस्थान (आईएनएसटी) के वैज्ञानिकों की एक टीम ने गैर-स्टेरॉयडल एंटी-इंफ्लेमेटरी ड्रग (गैर-दाहक या उत्तजेक दवा)-एनएसएआईडी एस्पिरिन से नैनोरोड विकसित किया है, जो एक लोकप्रिय दवा है जिसका उपयोग दर्द, बुखार, या सूजन को कम करने के लिए किया जाता है और यह मोतियाबिंद के खिलाफ एक प्रभावी गैर-आक्रामक छोटे अणु-आधारित नैनोथेरेप्यूटिक्स के रूप में भी पाया गया.

मोतियाबिंद अंधेपन का एक प्रमुख रूप है जो तब होता है जब हमारी आंखों में लेंस बनाने वाले क्रिस्टलीय प्रोटीन की संरचना बिगड़ जाती है, जिससे क्षतिग्रस्त या अव्यवस्थित प्रोटीन एकत्र होकर एक और नीली या भूरी परत बनाते हैं, जो अंततः लेंस की पारदर्शिता को प्रभावित करता है. इस प्रकार, इन समुच्चयों के गठन के साथ-साथ रोग की प्रगति के प्रारंभिक चरण में रोकना मोतियाबिंद की एक प्रमुख उपचार रणनीति है, और इस कार्य के लिए सामग्री मोतियाबिंद की रोकथाम को सस्ती और सुलभ बना सकती है.

जर्नल ऑफ मैटेरियल्स केमिस्ट्री बी में प्रकाशित उनका शोध एक सस्ते और कम जटिल तरीके से मोतियाबिंद को रोकने में मदद कर सकता है. उन्होंने स्व-निर्माण की एंटी-एग्रीगेशन क्षमता का उपयोग मोतियाबिंद के खिलाफ एक प्रभावी गैर-प्रमुख छोटे अणु-आधारित नैनोटेराप्यूटिक्स के रूप में किया है.एस्पिरिन नैनोरोड क्रिस्टलीय प्रोटीन और इसके विखंडन से प्राप्त विभिन्न पेप्टाइड्स के एकत्रीकरण को रोकता है, जो मोतियाबिंद बनने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं.

 वे जैव-आणविक संबंधों के माध्यम से प्रोटीन/पेप्टाइड के एकत्रीकरण को रोकते हैं, जो बीटा-टर्न जैसे क्रिस्टलीय पेप्टाइड्स की संरचना में बदल देते हैं, जो कॉइल्स (लच्छे) और कुंडल में अमाइलॉइड बनने के लिए जिम्मेदार होते हैं. ये क्रिस्टलीन, और क्रिस्टलीन व्युत्पन्न पेप्टाइड समुच्चय के एकत्रीकरण को रोककर मोतियाबिंद बनने में रोकने के लिए पाए गए थे. उम्र बढ़ने के साथ और विभिन्न परिस्थितियों में, लेंस प्रोटीन क्रिस्टलीन समुच्चय नेत्र लेंस में अपारदर्शी संरचनाओं का निर्माण करता है, जो दृष्टि को बाधित करता है और बाद में मोतियाबिंद का कारण भी बनता है. 

संचित अल्फा-क्रिस्टलीन प्रोटीन और क्रिस्टलीन व्युत्पन्न पेप्टाइड समुच्चय वृद्ध और मोतियाबिंद मानव लेंस में लक्षित असहमति को मोतियाबिंद बनने की रोकथाम के लिए एक व्यवहार्य चिकित्सीय रणनीति माना जाता है.  एस्पिरिन नैनोरोड्स आणविक स्व-जमा होने की प्रक्रिया का उपयोग करके उत्पादित किए जाते हैं, जो आम तौर पर नैनोकणों के संश्लेषण के लिए उपयोग किए जाने वाले उच्च लागत और श्रमसाध्य भौतिक तरीकों की तुलना में एस्पिरिन नैनोरोड उत्पन्न करने के लिए कम लागत और उच्च-स्तरीय तकनीक से होता है. 

आणविक गतिकी (एमडी) अनुकरण पर आधारित कम्प्यूटेशनल अध्ययन एस्पिरिन के एंटी-एग्रीगेशन व्यवहार और आणविक पेप्टाइड्स और एस्पिरिन के बीच प्रोटीन (पेप्टाइड) की प्रकृति के आणविक तंत्र की जांच करने के लिए किए गए थे. यह देखा गया कि पेप्टाइड-एस्पिरिन (अवरोधक) अंतःक्रियाओं ने पेप्टाइड्स को द्वितीयक संरचनाओं को बीटा-टर्न से बदल दिया, जो एमाइलॉयड्स बनने के लिए जिम्मेदार हैं, विभिन्न कॉइल्स (लच्छे) और कुंडल (हेलिक्स) में, इसके एकत्रीकरण को भी रोकते हैं.इस अनुकरण ने एस्पिरिन के मॉडल मोतियाबिंद पेप्टाइड्स द्वारा अमाइलॉइड जैसे फाइब्रिल गठन के लिए एक संभावित अवरोधक के रूप में कार्य करने की क्षमता को उजागर किया है.

कई प्राकृतिक यौगिकों को पहले ही क्रिस्टलीन एकत्रीकरण के लिए संभावित एकत्रीकरण अवरोधक के रूप में चिह्नित किया गया है, लेकिन इस दिशा में गैर-स्टेरॉयडल एंटी-इंफ्लेमेटरी ड्रग (गैर-दाहक या उत्तजेक दवा)-एनएसएआईडी जैसे एस्पिरिन उपयोगिता एक नया प्रतिमान भी स्थापित करेगी. इसके अलावा, अपने नैनो-आकार के कारण एस्पिरिन नैनोरोड्स जैव उपलब्धता, दवा की गुणवत्ता, कम विषाक्तता आदि में सुधार करेंगे. इसलिए, आई-ड्रॉप के रूप में एस्पिरिन नैनोरोड्स मोतियाबिंद के इलाज के लिए एक प्रभावी और व्यवहार्य विकल्प के रूप में कार्य करने वाला है.

प्रयोग करने में आसान और कम लागत वाले इस वैकल्पिक उपचार पद्धति से विकासशील देशों में उन रोगियों को लाभ होगा जो मोतियाबिंद के महंगे उपचार और शल्यचिकित्सा का खर्च वहन नहीं कर सकते. 
(स्त्रोत-पीआईबी )